Monday, October 17, 2011

जाओ जाओ तुम जैसे तीन सौ साठ(360) देखें हैं मैं ने



जाओ जाओ तुम जैसे तीन सौ साठ देखें हैं मैं ने शायद ही कोई हिंदी उर्दू बोलने वाला ऐसा हो जिस ने ये मुहावरा न बोला हो या न सुना हो 
इस मुहावरे का जन्म कहाँ से हुआ कैसे  हुआ इस्लामी ऐतबार से काबे मे तीन सौ साठ मन गढ़ंत  बुत थे जिनको उस समय तरह तरह से पूजा जाता था और ये मानना था के अगर इनकी पूजा न की जाए तो बहुत अनिष्ट(नुकसान) हो जाएगा बाद मे उनकी पूजा छोड़ कर एक ईश्वरवाद को स्वीकार(कुबूल) करते हुए लोगों ने अल्लाह को कुबूल किया और उसकी इबादत शरू की लेकिन उनका कोई अनिष्ट नहीं हुआ
मेरा अपना ख्याल है(जो गलत भी हो सकता है)  तभी से अरब मे ये जुमला किसी की  धमकी पर उस से न डरने को जताने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा होगा और जब माता हिंदी ने बेटी उर्दू को जन्म दिया और उर्दू जुबान बहुत मशहूर हुई तो उर्दू हिंदी मे भी ये मुहावरा खूब इस्तेमाल होने लगा   "जाओ जाओ तुम जैसे तीन सौ साठ देखें हैं मैं ने" देखें शेर 
"" खाक तुम हम को बनाओगे  मियां तुम जैसे 
   तीन सौ साठ हमें रोज मिला करते हैं""  आदिल रशीद 

Wednesday, October 12, 2011

जिस किसी दिन तुम उसूलों के कड़े हो जाओगे / aadil rasheed

जिस किसी दिन तुम उसूलों के कड़े हो जाओगे
बस उसी दिन अपने पैरों पर खड़े होजओगे
सच को समझाने की खातिर ये दलीलें ये जूनून
देख लेना एक दिन तुम चिडचिडे हो जाओगे
मैं महाज़े ज़िन्दगी पर सुरकरु हो जाऊंगा
तुम अगर मेरे बराबर मे खड़े हो जाओगे
कोई गैरतमंद मोहसिन खुद ब खुद मर जायेगा
सामने उसके जो तुम तनकर खड़े हो जाओगे
वो जहाँ दीदा था उसने इल्म यूँ आधा दिया
जानता था तुम बराबर से खड़े हो जाओगे
सब यहाँ अहले नज़र हैं क्या गलत है क्या सही
खुद को मैं छोटा कहूँ तो तुम बड़े हो जाओगे ?
मसनदे इन्साफ पर क्या दोस्ती क्या दुश्मनी
तुम खफा मुझ से अगर होगे पड़े हो जाओगे
बात मेरी गाँठ मे तुम बाँध लो इस दौर मे
काम तब होगा के जब सर पर खड़े हो जाओगे
जिस की गीबत कर रहे हो तुम सभी सर जोड़ कर
आया तो ताजीम मे उठ कर खड़े हो जाओगे
ज़ुल्म सहने की अगर आदत नहीं छोड़ी तो फिर
रफ्ता रफ्ता जेहन से तुम हीज्ड़े हो जाओगे
अहले तिलहर के लिए बच्चे ही हो आदिल रशीद
तुम ज़माने के लिए बेशक बड़े हो जाओगे आदिल रशीद

Thursday, October 6, 2011

उस अजनबी के लिए जिस से मेरा रिश्ता अज़ल से है...

हिन्दोस्तान मे जो चन्द शहर हैं जहाँ शायरी सुनी जाती है उनमे अलीगढ  की अपनी अलग हैसियत है.
अलीगढ़ मे मुशायरा पढना अपने आप मे एक ख़ुशी की बात है वहां ज़बान को समझने वाले लोग रहते हैं शेर को उसकी रूह तक जाकर समझते हैं और उस लफ्ज़ तक की दाद देते हैं जिस एक लफ्ज़ की वजह से वो शेर शेर होता है  मैं तो कहता हूँ के वहां निशस्त पढना किसी ऐसी जगह के मुशायरा पढने से लाख बेहतर है जहाँ शेर न सुने जाते हों बल्के मुशायरा देखा जाता हो.
मुशायरा पढने के बाद हमें न चाहते हुए कार उसी रस्ते पर डालनी पड़ी जिस से गए थे.
अलीगढ से बुलंद शेहर तक का जो रास्ता है  वो फिलहाल  हिंदुस्तान की रूह की तरह ज़ख़्मी है ऐसे ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर कार से तेज़ तो साइकिल चलती है धूल इतनी के उस से जियादा तो कोहरे मे दिखाई देता है.
बार बार मुजीब साहेब की यही बात याद आ रही थी "आदिल भाई बाई रोड मत आना" अब बग़ैर नुकसान उठाये किसी ने किसी की मानी है आज तक  जो हम मानते हम भी गए बाई रोड ही.

हम गए तो बाया हापुड़ थे लेकिन अचानक ख्याल आया के बुलंदशहर से सिकंदरबाद होते हुए जल्दी देहली पहुँच जायेगे और उधर रास्ता भी बेहतर है.सिकंदराबाद मे सारे ट्रक और बस एक लाइन मे खड़े थे पता किया क्यूँ  भाई ये जाम कैसा जवाब मिला झांकियां  निकल रही हैं चोराहे पर हमारा ड्राइवर बहुत होशियार था(कुछ ज़रुरत से जियादा ही) गाडी को आगे बढाता गया बढाता गया बढ़ता गया और वहां तक बढाता गया जहाँ से अब गाडी वापस भी नहीं आ सकती थी मतलब न इधर के रहे न उधर के.
नश्तर ने मुझ से कहा के अल्लाह जाने  कहाँ तक जाम है सरकारी नौकरी की यही परेशानी है अब वक़्त पर कैसे पहुंचेंगे मैं ने हंस कर कहा दोस्ती बड़ी चीज़ है या नौकरी जवाब आया उबैस भाई और मुजीब भाई से मशवरा करके बताऊंगा(वो दोनों भी सरकारी मुलाजिम हैं )
फिर मैं गाडी से उतर कर बहुत दूर तक देखने गया जहाँ चौराहे पर झांकी निकल रही थी चौराहे पर जा कर देखा वहां चौराहे पर झांकी निकल कहाँ रही थी वो तो रक्खी थी (क्यूँ के अगर निकल रही होती तो अब तक निकल गयी होती) चौराहे पर जाम के कारण उधर की  गाड़ियाँ उधर इधर की इधर थीं  प्रशाशन गूंगा देख रहा था जब के इसको हेंडल किया जा सकता था लेकिन  नहीं किस की मजाल के उस जन सैलाब के सामने अपने अधिकारों का प्रयोग करे 
मैं ने देखा के एक अम्बुलेंस भी फँसी है उस मे एक मरीज़ ऑक्सीज़न लगा हुआ लेटा है और उसके रिश्तेदार गुमसुम हैं (शायद रोते रोते थक गए होंगे) उनको देहली AIIMS पहुंचना है उन्होंने बताया के उन्होंने बहुत फरियाद की के मरीज़ है इस गाडी को किस भी तरह निकल जाने दो मगर किसी ने हमारी मदद नहीं की  मैं एक अधिकारी के पास गया और उन से कहा के आप जाम खुलवाते क्यूँ नहीं जवाब वही जो मुझे पहले से पता था "धार्मिक मामला है हम जियादा ज़बरदस्ती नहीं कर सकते कुछ भी हो सकता है " 
मैं वापस आया और और नश्तर को सारी बात बताई फैसला किया गाडी यही छोडो किसी तरह वापस बुलंद शहर जाकर वहां से बाया हापुड़ चला जाए और फिर अचानक एक अजीब सी गाडी शायद "जुगाड़" वहां आई और उस ने आवाज़ लगानी शुरू की बुलंदशहर बुलंदशहर बुलंदशहर 
मुझे तो वो कोई अल्लाह का भेजा फ़रिश्ता नज़र आया मेरा एक शेर भी है जो में ने ऐसे ही किसी परेशानी के मौके पर किसी के मेरी मदद करने के बाद कहा था 
हमें अपने मसाइल का जो कोई हल नहीं मिलता 
बशक्ले आदमी वो इक फ़रिश्ता भेज देता है (आदिल रशीद 2001)
फिर उस जुगाड़ से बुलंदशहर तक और बुलंदशहर से बस से बाया हापुड़ देहली का सफ़र किया.उसी वक़्त किसी का भोपाल से SMS आया "लौट के बुद्धू घर को आये" और कोई वक़्त होता तो मैं बहत देर हँसता इस SMS पर लेकिन नहीं हंस सका मेरे दिमाग में तो वो मरीज़ और अमबुलंस घूम रही थी क्या हुआ होगा उसका क्या वो बचा होगा क्या उसके पास इतनी आक्सीजन थी क्यूँ के  जाम क्या पता कब खुला होगा क्या इतना समय दिया होगा ज़िन्दगी ने उस को. मेरी निगाह में मौत हमें जितनी मोहलत देती है उतने ही वक़्त को ही हम ज़िन्दगी कहते हैं .
मेरे दमाग में एक बात आती है के कोई भी धार्मिक या सियासी जुलूस निकालते वक़्त (यहाँ किसी विशेष धर्म की तरफ इशारा नहीं इसमें इस्लामी जुलूस भी हैं वो भी यही करते हैं) हम इंसानियत को क्यूँ भूल जाते हैं क्या हमें कोई भी धर्म इंसानियत को ज़ख़्मी करने की इजाज़त देता है क्या इस तरह के जुलूस धरने प्रदर्शन जो ज़िन्दगी को अस्त व्यस्त कर देते हैं  उस से इश्वर खुदा जो के एक ही के अलग अलग नाम हैं क्या वो खुश  होता है. 
रास्ते भर मैं उस अजनबी के लिए खुदा से दुआ करता रहा के खुदा उस अजनबी को इतनी साँसे और दे दे के वो अस्पताल पहुँच जाए क्युनके अगर वो अस्पताल नहीं पहुँच सका तो उसके रिश्ते दार सारी ज़िन्दगी यही सोच कर उन लोगों (जाम लगाने वालों)को मुआफ नहीं कर पायेंगे के काश जाम न होता और वो  वक़्त से अस्पताल पहुँच गए होते तो मरीज़ बच गया होता.......आदिल रशीद

Saturday, October 1, 2011

७८६ अंक को शुभ क्यूँ माना जाता है....aadil rasheed

ये मेरा एक बहुत पुराना लेख है जो के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हो चूका है 


 ७८६ अंक को शुभ क्यूँ माना जाता है

याद कीजिये फिल्म दीवार का वो मंज़र अमिताभ के सीने पर गोली लगती और उन्हें कुछ नहीं होता गोली उनके बिल्ला नम्बर "786"  से टकरा कर बेकार हो चुकी है अमिताभ उस बिल्ले को कोट की जेब से निकाल कर चूमते हैं  फिर फिल्म कूली मे वही चमत्कारी  बिल्ला नंबर "786"  लगाते है   कूली मे एक जबरदस्त हादसे में  घायल होते है जिंदगी और मौत की जंग मे जीत ज़िन्दगी की होती है और वो रुपहले परदे पर भी और अपने वास्तविक जीवन मे भी अंक "786''  के ज़बरदस्त कायल हो जाते हैं और आज भी वह और उनका परिवार अंक "786" को अपने लिए शुभ मानता है

क्या है ये अंक 786 और क्यूँ मानते हैं इसको शुभ 

 एक अरबी भाषा का शब्द है "अबजद" जिसका एक मतलब होता हैं किसी बिद्या को सीखने की सब से पहली स्तिथि यानि अलिफ़,बे,ते (A.B.C.D.) क ख ग घ  सीखना


 जो दूसरा मतलब है वो अपने आप मे एक विद्या हैं किसी भी शब्द के नंबर निकालना ये अरबी की विद्या है इसलिए अरबी के तरीके से ही चलती है इसमें अरबी के हर अक्षर को एक गिनती दी हुई है किसी शब्द मे जो जो अक्षर प्रयोग होते हैं उन को गिन कर जोड़ कर जो योग निकलता है वही उस शब्द के अंक होते है आदिल रशीद को उर्दू मे लिखेंगे عادل رشید इसमें प्रयोग हुआ ऐन. अलिफ़ ,दाल, लाम, तो इस में 
ऐन के=70, अलिफ़ के =1 दाल के=4 लाम के=30 टोटल = 105 
इसी तरह रशीद रे के =200 शीन के =300 ये के =10 दाल के =4 टोटल=314 
आदिल रशीद के हुए 105 +314=419
इसी हिसाबे अबजद से बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम जिसके अर्थ होते हैं "शुरू करता हूँ उस अल्लाह के नाम से  जो बेहद रहम वाला है"
अगर पुरे  वाक्य "बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम" के अंक(नंबर) अबजद से निकालें तो बनेगे 786 इसी लिए मुस्लिम्स में  इसको लकी माना जाता है बहुत से लोग इसको नहीं भी मानते. 
 इस में हिन्दू मुस्लिम्स एकता का भी एक मन्त्र छुपा है अगर हम इसी तरह से " हरे कृष्णा" के निकालें तो भी निकलेंगे 786 दोनों के बिलकुल एक समान.
काश ये हमारे कुछ नेता गण समझ जाएँ  इश्वर एक है उसका सन्देश एक है मानवता सब से बड़ा धर्म है.

अरबी के सभी अक्षरों के नम्बर इस प्रकार हैं,
अलिफ़ =1,बे=2,जीम=3,दाल=4,हे=5,=वाओ=
6, ज़े=7,बड़ी हे =8,तूए के =9,ये =10
छोटा काफ =20,लाम=30,मीम=40,नून के =50,सीन=60,ऐन =70,फे=80,स्वाद =90,
बड़े काफ =100,रे =200,शीन =300,ते =400,से=500,खे=600,जाल -700,जवाद =800
जोए =900,गैन=1000,

अबजद के खेल में ताश जिसे इल्मी ताश कहा जाता है बच्चे इल्मी ताश खेलते है और आये हुए पत्तों से शब्द बनाते हैं  इस से उनका शब्द ज्ञान बढ़ता है 
हाज़िर है एक ग़ज़ल के चन्द शेर 

सब तो  बैठे हुए हैं मसनद पर 
हम ही ठहरे हुए हैं अबजद पर  

कल ही मिटटी से सर निकाला है
आज ऊँगली उठा दी बरगद पर 

आँख सोते मे भी खुली रखना 
सब की नज़रें लगीं हैं मसनद पर 

आज के दिन बटा था इक आँगन 
आज मेला लगेगा सरहद पर 


पहले उसने मेरे कसीदे पढ़े 
घूम फिर कर वो आया मकसद पर