Wednesday, September 1, 2010

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है

मैंने अपनी  ये ग़ज़ल  15   अगस्त,1989  की रात को नगर पालिका तिलहर में एक काव्य गोष्टी में  इसका पाठ किया तो अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन एस डी एम साहेब ने इस के निम्न लिखित शेर
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
पर   50  रूपये पुरस्कार के रूप में दिए , जो मेरे जीवन में एक अमूल्य पुरस्कार और सम्मान है बाद में कुछ हिंदी कवियों ने मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम रखा और एक शाल भेट की तो कई आदरणीय बुज़ुर्ग उर्दू शायरों ने उस कार्यक्रम का बहिष्कार किया
              ग़ज़ल

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है

हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है

इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है

ये कह के हुमायूं को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है

अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है

आदिल रशीद
[नोट ;शुरू में मेरी रचनाएं चाँद तिलहरी एव चाँद मंसूरी के नाम से प्रकाशित हुई है]

2 comments:

इस्मत ज़ैदी said...

बेहद ख़ूबसूरत मतले से ग़ज़ल की शुरूआत
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है

बिला शुबह हासिल ए ग़ज़ल शेर यही है
बस अपनी अक़्ल के सही इस्तेमाल की ज़रूरत है

निर्झर'नीर said...

khuda kare tumeh is qadar roshan jag mein
ki tere naam se aage kisi ka naam m=na ho


subaan allahhhhhhhh

इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है