Friday, September 24, 2010

kalagarh ki yadon ke naam ek kavita /aadil rasheed

यादो  के  रंगों  को  कभी  देखा  है तुमने
कितने  गहरे  होते  हैं
कभी  न  छूटने  वाले
कपडे पर  रक्त के निशान के जैसे
मुद्दतों  बाद  आज  आया  हूँ  मैं
इन  कालागढ़  की उजड़ी बर्बाद वादियों  में
जो कभी स्वर्ग से कहीं अधिक थीं
जाति धर्म के झंझटों से दूर
सोहार्द सदभावना प्रेम की पावन रामगंगा
तीन  बेटियों  और  एक  बेटे  का  पिता  हूँ  मैं  आज
परन्तु  इस  वादी  मे  आकर
ये  क्या  हो  गया
कौन  सा  जादू  है
 वही  पगडंडी जिस  पर  कभी
बस्ता  डाले कमज़ोर  कन्धों  पर
जूते  के  फीते  खुले  खुले  से
बाल  सर  के  भीगे  भीगे  से
स्कूल  की  तरफ  भागता ,
वापसी  मे 
सुकासोत  की  ठंडी  रेट  पर
 जूते  गले  में  डाले
 नंगे  पैरों  पर  वो  ठंडी  रेत का  स्पर्श
सुरमई  धुप  मे
आवारा  घोड़ों
और  कभी  कभी  गधों  को
हरी  पत्तियों  का  लालच  देकर  पकड़ता
और  उन  पर  सवारी  करता
अपने गिरोह के साथ  डाकू  गब्बर  सिंह
रातों  को  क्लब  की
नंगी  ज़मीन  पर बैठ  फिल्मे  देखता
शरद  ऋतू  में  रामलीला  में 
वानर  सेना  कभी  कभी
मजबूरी में  बे मन से बना
रावण सेना  का  एक नन्हा  सिपाही
और ख़ुशी ख़ुशी  रावण  की  हड्डीया लेकर
भागता  बचपन  मिल  गया
आज  मुद्दतों  पहले
खोया  हुआ
चाँद  मिल  गया

Wednesday, September 22, 2010

के दरिया बहने लगा खतरे के निशान के साथ/ आदिल रशीद

निभाए हम ने मरासिम यूँ  बदजुबान के साथ
के जैसे रहता है आईना इक चटान के साथ

ज़मीं भी करने लगी अब दुआ किसान के साथ
के दरिया बहने लगा खतरे के निशान के साथ

है तेरे हाथ मे अब लाज उसकी रब्बे करीम
परिन्दा शर्त लगा बैठा आसमान के साथ

कहीं ये बढ़  के मेरा हौसला न कत्ल करे
तभी तो जंग छिडी है मेरी थकान के साथ

हम ऐसे लोग भला कैसे नींद भर सोयें
के जाग  उठती हैं फिक्रें मियां अज़ान के साथ

वो जिसके सामने दरिया ने नाक रगड़ी है
हमारा रिश्ता है उस आला खानदान  के साथ

गरीब होने से तहज़ीब मर नहीं सकती
वो चीथडों मे भी रहता है आन बान के साथ

Wednesday, September 15, 2010

भाषाओँ का मज़हब क्या है ?

बात लगभग 1986 -87 की है मैं जनता एक्सप्रेस से लखनऊ से कालागढ़ जा रहा था धामपुर तक का सफ़र ट्रेन का था. मुझे आज भी याद है वो दिसम्बर की ऐसी सर्द रात थी के अल्फाज़ भी मुंह से बाहर आते हुए डर रहे थे कहीं सर्दी न लग जाए. जनता एक्सप्रेस ट्रेन का नाम यूँ भी सार्थक लग रहा था क्यूँ के अवाम (जनता)के घरों की तरह ही उसकी खिड़कियाँ छतिग्रस्त थी जिन से हवा बिना किसी  रोक टोक  के वैसे ही आ रही थी जैसे किसी गरीब मजदूर की कुटिया में आती है.  
मैं ऊपर की बर्थ पर सुकून से लेटा  था और उस सर्द रात में भी चैन से सो रहा था और अपने भविष्य के हसीन सपने  में खोया हुआ था के अचानक कुछ शोर से आँख भी खुल गयी और सपना भी टूट गया.सफ़र में अक्सर ऐसा होता है जब कोई स्टेशन आता है तो सवारियों के शोर या चाय चाय की आवाज़ आपको जगा देती है वो चाय बेचने वाले भी खूब अच्छी तरह  जानते हैं के लोग सो रहे हैं तो ज़ाहिर है सपने भी देख रहे होंगे लेकिन वो क्या करे उनकी मजबूरी है. उनको तो इस नींद और सपनो के समय में भी पेट की भूक जगाये रखती है

जब मेरी आँख खुली तो मैं ने एक सवारी से पूछा तो उसने बताया हरदोई है. लखनऊ से हरदोई का छोटा सा सफ़र सपनो के लिए कितना बड़ा है आप इतने से वक़्त में क्या क्या देख लेते हैं .जो महानुभाव डिब्बे में चढ़े शायद ८ या १० थे उन सब की सीटें मेरे ही इर्द गिर्द थी उनकी बातों से पता चला के वो लोग हरिद्वार जा रहे हैं सभी बड़े ही गुनी और ज्ञानी से प्रतीत हुए पहनावे से.
गाडी के चलते ही उनमे से एक बोला "इस बात का कालिदास को बड़ा बुरा लगा " मुझे समझने में देर नहीं लगी के इनकी ये परिचर्चा जो ट्रेन के विलम्ब के कारण इनका समय काट रही थी ट्रेन के आने से उसे बीच में अधूरी छोड़ कर ये लोग ट्रेन में बैठ गए लेकिन स्थान ग्रहण करते ही बिना किसी विलम्ब के वही से शुरू की जहाँ से छोड़ी थी मुझे बड़ा आनंद आया सोचा के चलो आज कुछ ज्ञान की बातें मिलेंगी सुनने को जिन से बहुत कुछ सीखने को भी मिलेगा.

किन्तु थोड़ी ही देर बाद मेरा ये भरम टूट गया जब  उन्होंने उर्दू भाषा की मुखालिफत शुरू कर दी और हिंदी का गुणगान करना शुरू कर दिया. हिंदी को हिन्दुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की ज़ुबान साबित करने पर अड़ गये. कोई और मौक़ा होता तो शायद मैं उनसे इस विषय पर तफ्सीली गुफ्तगू करता लेकिन पिताजी ने कहा था के सफ़र में किसी से बहस मत करना और खास कर तब जब वो आपसे गिनती में अधिक हों.
उनकी इस तरह की बचकाना बातों  से मेरा  मन परेशान तो बिलकुल नहीं हुआ हाँ नींद  का और ख्वाब का नुकसान होता साफ़  नज़र आने लगा और मैं करवटें बदलने लगा उसी समय पिताजी की दूसरी बात याद आई के ऐसे समय में क्या करना चाहिए ऐसे समय में सामने वाले को किसी काम में लगा देना चाहिए .
मैं ने फ़ौरन नीचे झाँक कर अपनी आसान भाषा में जानबूझ कर हिंदी शब्दों का प्रयोग करते हुए उनको  संबोधित किया आदरणीय महोदय नमस्कार आप सब ही मेरे गुरु समान है  मेरा धन्य भाग्य  जो आज जीवन में ऐसा शुभ अवसर आया के मैं तुच्छ आप जैसे महा ज्ञानी प्राणियों से कुछ ज्ञान अर्जित कर सकता हूँ आप सब से मेरा विनर्म निवेदन है के अनुज के भी ज्ञान में कुछ वृधि करें

मेरी भाषा सुनते ही वो सज्जन जो उनमे  सब से अधिक बोल रहे  थे बहुत प्रसन्न हुए  और बोले  पुत्र आपकी हिंदी से हृदय गदगद हो गया बोलो  क्या शंका है क्या प्रश्न है  मैं ने हाथ जोड़ कर उन से विनर्म शब्दों में कहा कहा आदरणीय महोदय आपने जो वस्त्र अपने शरीर पर धारण किये हुए हैं इनको क्या कहते हैं वह एक दम से बोले "धोती कुरता " मैं मुस्कराया और बोला इस में हिंदी शब्द कौन सा है और उर्दू शब्द कौन सा है वह बड़े ही गर्व से बोले "दोनों ही शब्द हिंदी हैं पुत्र" मैं बोला नहीं गुरूवर इसमें धोती "हिंदी" है तथा कुरता "फारसी" है आप मुझे कुरते की हिंदी बता दें वह बोले कमीज़ मैं बोला "कमीज़" तो अरबी है तो वह सोच में पड़ गए मैं ने कहा आप शीघ्रता न करें आपस में विचार विमर्श कर लें  यदि मैं सो जाऊं तो  उत्तर निंद्रा से जगा कर भी दे दें मैं आजीवन आपका आभारी रहूँगा और हाँ मुझे कालागढ़ जाने के लिए धामपुर उतरना है यदि सोता रह जाऊं तो उठा देंगे तो अति महान कृपा होगी.

उनको  काम से लगा कर मैं ने कम्बल में मुंह छुपा लिया न जाने कब मुझे नीद भी आ गई  सुब्ह उन्ही में से एक के उठाने पर मेरी नींद टूटी वह सज्जन मुझे हिलाते हुए कह रहे थे उठो बेटा धामपुर आने वाला है मैं ने देखा के स्योहारा का स्टेशन है धामपुर अभी दूर है मैं समझा शायद उन्हें उत्तर पता चल गया था इसलिए बताने के लिए पहले उठा दिया . मैं उठा मुंह हाथ धोकर बैठ गया और बाहर का द्रश्य निहारने के लिए मैं खिड़की को उठाने लगा तो वही सज्जन एक दम बोले रहने दो बेटा शीतल हवा अन्दर आ जाएगी मैं उनकी ओर देखकर धीरे से मुस्कराया. वो लोग चाय  पी रहे थे उन्होंने थर्मस से कप में चाय उंडेलते हुए मुझ से पूछा बेटा चाय पियोगे मैं ने मुस्कराते हुए हाँ की मुद्रा में सर हिला दिया उन्होंने एक प्याला चाय मेरी ओर बढ़ाते हुए पूछा बेटा क्या तुम बता सकते हो कि  कुरते को हिंदी में क्या कहते हैं मैं फिर मुस्कराया तो वो बोले बेटा तुम  बात बात पर मुस्कराते हुए बहुत सुन्दर लगते हो मै ने मुस्कराते हुए धन्यवाद कहा.

तभी धामपुर का स्टेशन आने को हुआ मैं ने अपना कम्बल लपेटते हुए मुस्कराकर आहिस्ता से पूछा रामधारी सिंह "दिनकर" को पढ़ा है  वो बोले हाँ हाँ मैं अध्यापक हूँ और उनको पाठ्यक्रम में पढाता हूँ .
मैं ने कहा चाँद का कुरता कविता पढ़ी है उन्होंने हाँ में गर्दन हिलाते हुए पढना शुरू किया
"हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई  भाड़े का"

कविता पढने के बाद मुस्कराने की बारी उनकी थी और फिर कुरते की हिंदी समझ आने पर सभी मुस्कराने लगे और  बोले "अब मैं आपकी मुस्कराहट का तात्पर्य समझा." मैं मंद मंद फिर मुस्कराया वो बोले खिड़की खोलते और चाय लेते समय मुस्कराने का कारण ?  मैं बोला के आपने कहा था शीतल हवा अन्दर आ जाएगी शीतल या ठंडी दोनों हिंदी हैं जब के "हवा" "अरबी" का शब्द है इसी प्रकार आपने पूछा चाय पियोगे तो मान्यवर चाय  "फारसी" का शब्द है मुस्कराहट अरबी का शब्द है ये सुनकर सभी मुस्कराने लगे.

मैं जब उतरने लगा तो वो कागज़ पेन निकलते हुए बोले बेटा तुम्हारा नाम और पता क्या है (उस समय मोबाईल का तो स्वप्न भी नहीं था) मैं ने कहा आदिल रशीद पुत्र श्री अब्दुल रशीद मकान नम्बर C -824  वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ उत्तर प्रदेश वो मुझे अचंभित होकर देखते रहे शायद उत्तर उनकी आशा से उलट निकला था मै  ट्रेन से उतर गया और चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर.

मुझे एक वाक्या और याद आ रहा है 1987 में हमारे मोहल्ले में किसी साहेब के यहाँ उनके पाकिस्तानी रिश्तेदार घूमने आये थे जिन में बड़ी ही सुन्दर और नाज़ुक मिज़ाज लड़कियां भी थी जो  बातें बड़ी अदायगी से आँखें भवें मटका मटका कर और हाथ नचा नचा कर करती थी जब वो बात करतीं तो रौब ज़माने के लिए  उर्दू अरबी फारसी के इतने मुश्किल शब्दों का प्रयोग करती के हमारे मोहल्ले की  लड़कियां मुसलमान होते हुए भी उनका मुंह ताकती रह जाती.

मेरे सामने भी उन्होंने यही किया मैं ने उन से कहा के मोहतरमा इतने मुश्किल अल्फाज़ का इस्तेमाल न करें जो किसी की समझ में ही न आयें तो वो हिंदी सिनेमा कि मशहूर कलाकार  मनोरमा कि तरह हाथ आँखें भवें नचाकर बोलीं " वल्लाह तो गोया आपका मकसद ये है के हम अपनी मादरी ज़बान में बात न करें हम इसे कैसे छोड़ सकते हैं ये हमारे मुल्क कि ज़बान है  "बस क्या था मैं ने फ़ौरन  "येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न ज्ञानम् न शीलं, न गुणों, न धर्मः ते मर्त्य लोके भुवि भार भूता,मनुष्य रूपें मृगाश्चरन्ति" पढ़कर कहा ये मेरे राष्ट्र कि भाषा है आपकी समझ में कुछ आया उन्होंने माला सिन्हा कि तरह पलके झपकाते हुए नहीं में अपने सर को हिलाया मैं ने कहा हमारे पास कितने मुश्किल शब्द हैं हमें इस का रौब डालने से बेहतर है उन अल्फाज़ का इस्तेमाल करना चाहिए जो सामने वाला आसानी से समझ सके उसके बाद उन हसीनाओं का हसीन काफिला जब तक रुका उन में से कोई भी दोशीजा कभी भी मुश्किल अलफ़ाज़ में महवे गुफ्तगू न हुईं.
आज भी  मैं जब ये देखता हूँ के लोग उर्दू को मुसलमानों की ज़बान कहते हैं और हिंदी को हिन्दुओं की ज़बान कहते हैं तो बहुत अजीब लगता है और उर्दू के जनम (उर्दू में जन्म नहीं जनम ही लिखा जाता है) की तरफ नज़र जाती है उर्दू हिंदी का इतिहास बताता है कि  एक मान्यता के अनुसार फारसी बोलने बाले सिन्दू नदी के इस पार रहने वालों को हिन्दू कहते थे ये उनकी अपनी मजबूरी थी क्यूँ के  फारसी में "स" की जगह "ह" शब्द प्रयोग में है इसीलिए ही यहाँ का नाम हिन्दोस्तान पड़ा और यहाँ की संस्कृति को हिन्दू संस्कृति कहा गया और यहाँ की भाषा संस्कृत थी उर्दू का प्राचीन नाम हिन्दवी था जो संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओँ और अरबी तुर्की फारसी का मिला जुला रूप थी १३ वी शताब्दी से मध्य काल तक इस का नाम हिन्दवी ही रहा  लेकिन समय के साथ इसके रूप के साथ साथ इसका नाम भी बदलता रहा  और इसे ज़बान  हिंद , ज़ुबाने दिल्ली , रेख्ता , गुजरी , दखनीज़बाने लश्करी,ज़बान - -उर्दू -मुअल्ला भी कहा गया.

उर्दू भाषा के जनम का कारण भी कम दिलचस्प नहीं मेरे दादा जी कारी सुलेमान के मत के अनुसार जंग के दिनों में बड़ी परेशानियों आती थीं अफसर जो के अधिकतर अरबी या फारसी बोलते थे उनकी बात आम सिपाहियों के पास एक दुभाषिये के माध्यम से पहुँचने के कारण पूरी तरह नहीं पहुँच पाती थी इसलिए ये फैसला किया गया के एक ऐसी ज़बान तैयार की जाए जो जंग के समय सिपाही और अफसर एक सी बोले और तब भारत में इस उर्दू भाषा का जनम हुआ 
इसमें इंग्लिश, संस्कृत,अरबी.फारसी के सरल शब्दों को इकठ्ठा किया गया इसी का नाम आज उर्दू है.

जैसा कि आज भी है  सिपाही के जंग से लौट कर या किसी के विदेश से लौट कर आने पर उस से वहां के बारे में पूछना बतियाना होता है इसी तरह जब उस समय सिपाही के घर आते तो सभी उनसे आने पर पूछते हमें वो भाषा बोल कर बताइए जो जंग में बोली जाती है सिपाहियों के हिन्दवी बोल कर बताने पर बहुत पसंद की गई बाद में इसे शुरू से ही बच्चों को पढाया जाने लगा ताकि जब वो बच्चे जवान हो और फ़ौज में जाएँ तो आसानी से बोल सकें.आज इसका स्थान अंग्रेजी ने ग्रहण कर लिया है वायु सेना नेवी एयर इंडिया सब इस बात का विशेष ध्यान रखती है के प्रार्थी को अंग्रेजी का ज्ञान होना चाहिए.

18 वीं सदी तक हमारे मुल्क में बोले जाने वाली इसी भाषा को हिन्दवी और ज़बाने लश्करी कहा गया  दरअसल इसका नाम उर्दू क्यूँ पड़ा उर्द तुर्की का शब्द है जिसके अर्थ है फ़ौज ,लश्कर,और ये ज़बान फौजियों की ज़ुबान थी इसलिए इसे ज़बाने उर्दू यानि फौजियों की ज़बान कहा गया.

अंग्रेजों से लोहा लेने में इसी हिन्दवी यानि उर्दू का बहुत बड़ा योगदान है "इन्कलाब जिंदाबाद" इसी हिन्दवी की देन है जिसका बदल आज तक नहीं तलाश किया जा सका और न ही किया जा सकेगा क्यूँ के जो बात जो जोश जो वलवला इन्कलाब जिंदाबाद में है वो बात भारत की किसी और भाषा के शब्द या वाक्य में नहीं.

एक कलमकार किसी भी मज़हब का हो उसका सबसे बड़ा मकसद इंसानियत होता है या यूँ कहें के किसी कलमकार का कोई एक मज़हब एक धर्म नहीं होता तो भी गलत नहीं होगा तो वो कलमकार जिसको कोई एक मज़हब नहीं बाँध सका वो किसी एक भाषा में कैसे बंध कर रह सकता है उसको तो उस भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो आम बोलचाल की ज़ुबान है और उर्दू यानि हिन्दवी में ये खासियत है के वो कानों को भी मधुर लगती है और समझ में भी आसानी से आती है

1947  के विभाजन के बहुत बाद तक इसे उतने ही प्यार से देखा गया जितने  प्यार से विभाजन से पूर्व देखा जाता था बाद  में कुछ लोग सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिए उर्दू  हिंदी भाषा को धरम से जोड़ने लगे और अब भी जोड़ते हैं वो कितने सही हैं आप सोचिये.के वो उर्दू हिंदी को मौत के कगार पर बताते है लेकिन उनके घर में अखबार अंग्रेजी के आते हैं उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं आप किसी भी ज़बान में तालीम शिक्षा हासिल  करें लेकिन आप अपनी ज़िन्दगी से आम बोलचाल को नहीं निकाल सकते बाज़ार में आप जायेंगे तो आपको हिन्दवी का प्रयोग करना होगा वरना शायद ही आप सब्जी या कोई दूसरा सामान खरीद पायें.आप टेलिविज़न के समाचार और धारावाहिक देखें ऍफ़ एम् सुने वहां आपको हिन्दवी अधिक नज़र आएगी ऑफिस बाज़ार आम बोलचाल हर जगह इसी हिन्दवी  का बोलबाला है

एक फिल्म आई थी हृषिकेश मुखर्जी की जिसमे अमिताभ बच्चन .धर्मेन्द्र ,शर्मीला टैगोर ओम  प्रकाश ने अभिनय किया था इस जटिल मुद्दे को उन्होंने ७० के दशक में उठाया था भाषा आसान होनी चाहिए मुश्किल नहीं मुझे ये फिल्म बहुत पसंद है Iएक बार १९९४ में मैं महरोली क़ुतुब मीनार से ग्रीन पार्क के लिए  डी.टी.सी बस में चढ़ा साथ में कुछ मित्र थे मैं जेब से 5 का नोट निकाल कर  कंडक्टर की तरफ बढाया और कहा " तीन यात्रा अनुमति पत्र  दीजिये " उसने मुझे ऊपर से नीचे तक हैरत की नज़र से देखा जैसे मैं कोई एलियन हूँ साथ में खड़े कुछ यात्रियों में से एक ने हँसते हुए पूछा क्या भाई साहेब क्या सीधे श्री लंका से आये हो.

आज हिंदी  ही  नहीं  उर्दू  में से भी  न  जाने  कितने  शब्द  लुप्त  हो गए हैं कोई भी आदमी आज अनुमति पत्र या इजाज़त नामा नहीं बोलता जिसे देखो टिकट ही बोलता है स्टेशन ही बोलता है बस अड्डा ही बोलता है हमारी आदत है के हम आसानी से समझने वाले शब्द ही बोलते हैं उन्हें ही याद करते हैं उन ही का प्रयोग करते हैं.


मैंने कई बार देखा है के उर्दू की  मुखालिफत यानि विरोध में जो भाषण दिए जाते है वो भाषण लगभग ६०% उर्दू के शब्दों के बगैर पूरे नहीं होते अब सोचिये जिस भाषा (हिन्दवी) की मुखालिफत करने के लिए आपको उसी ज़बान के शब्दों का सहारा लेना पड़े वो भाषा कितनी महान होगी.कितना विशाल हृदय होगा उसका.

अब  हिन्दू शब्द को ही लो ये शब्द फारसी का है पुर्र्लिंग है इसके कई अर्थ जो फारसी शब्दकोष में लिखे हैं वो इस प्रकार हैं .हिन्दोस्तान का रहने वाला .हिंदी .प्रेमिका के गाल का काला तिल .प्रेमिका की ज़ुल्फ़ .गुलाम आदि . इसी प्रकार हिंद शब्द भी फारसी का है जिसके अर्थ है हिन्दोस्तान, भारत. भूगोलिक स्तिथि से माना जाए तो सिन्धु घाटी से इस ओर रहने वाले सभी हिन्दू कहलाये तो मैं भी गर्व से कह सकता हूँ के मैं भी हिन्दू हूँ क्यूँ के मैं हिन्दोस्तान में रहता हूँ
भारत में जन्म भी न लेने वाली और अमेरिका की नागरिकता प्राप्त सुनीता विलियम को तो हम भारत की बेटी कह कर पलकों पर बिठाते हैं लेकिन उर्दू (हिन्दवी) जिसका जन्म भी भारत में हुआ और जवान भी भारत में हुई और जिसने पूरी दुनिया को अपनी मिठास का दीवाना बनाया उसको हम दुश्मन की नज़र से देखते हैं.ऐसा दोहरा मापदंड क्यूँ
यहाँ मैं उर्दू कि वकालत नहीं कर रहा हूँ बल्कि मेरा मकसद ये कहना है के उर्दू यानि हिन्दवी भी वैसे ही भारत कि ज़बान है जैसे हिंदी भारत कि ज़बान है हिंदी और उर्दू दोनों भाषाएँ भारतीय है यहीं पैदा हुई हैं इनमे किसी तरह का भेद भाब नहीं करना चाहिए ये दोनों ज़बाने एक साथ फल फूल रही है इनको फलने फूलने दें इनको किसी धर्म से न जोड़ें भाषाओँ को धर्म से जोड़ना किसी भी तरह उचित नहीं है इस से समाज में दरार पड़ती है और समाज में पड़ी दरार देश के विकास में रुकावट पैदा करती है अंत में अपने एक मतले से अपनी बात समाप्त करता हूँ:
भाषाओँ  का मज़हब क्या है 
इन बातों का मतलब क्या है 
जय हिंद जय भारत 
आदिल रशीद 

एक नज़्म मासूम सवाल

ईश्वर ने राजा  और रंक दोनों को जो चीज़ एक समान दी है है वो है ममता ......आदिल रशीद 
  हम जो भी बात चीत  घर में करते  हैं हमारे बच्चे  उनको सुनते हैं और कभी कभी ऐसे ऐसे सवाल कर देते हैं जिनका  जवाब हम  नहीं दे पाते या जिनका हम जवाब जानते हुए भी देना नहीं चाहते मेरी ये नज़्म मेरी सब से छोटी बेटी अरनी सहर के अचानक किये गए ऐसे ही एक मासूम सवाल के बाद मेरे दिल मे उठे भावुकता के पलों की है     .....आदिल रशीद
मुहमल  - जिसको तर्क कर दिया जाए जिसका प्रयोग न किया जाये,बेकार फ़िज़ूल,बे मआनी,जिसका कोई अर्थ न हो,
मुतमईन - संतुष्ट,
खालिक- मालिक .प्रभु, ईश्वर
लुगत - शब्द कोष डिक्शनरी  
नज़्म मासूम सवाल सवाल
वो मेरी मासूम प्यारी बेटी
है उम्र जिसकी के छ बरस की
ये पूछ बैठी बताओ पापा
जो आप अम्मी से कह रहे थे
जो गुफ्तुगू आप कर रहे थे
के ज़िन्दगी में बहुत से ग़म हैं
बताओ कहते है "ग़म" किसे हम?
कहाँ  मिलेंगे हमें भी ला दो?
सवाल पर सकपका गया मैं
जवाब सोचा तो काँप उठ्ठा
कहा ये मैं ने के प्यारी बेटी
ये लफ्ज़ मुहमल है तुम न पढना
तुम्हे तो बस है ख़ुशी ही पढना
ये लफ्ज़ बच्चे नहीं हैं पढ़ते
ये लफ्ज़ पापा के वास्ते है




          
वो मुतमईन हो के सो गई जब
दुआ की मैं ने ए मेरे मौला
ए मेरे मालिक  ए मेरे खालिक
तू ऐसे लफ़्ज़ों को मौत दे दे
मआनी जिसके के रंजो गम हैं
न पढ़ सके ताके कोई बच्चा 
न जान पाए वो उनके मतलब
नहीं तो फिर इख्तियार दे दे
के इस जहाँ की सभी किताबों
हर इक लुगत  से मैं नोच डालूं
खुरच दूँ उनको मिटा दूँ उनको
जहाँ -जहाँ पर भी  ग़म लिखा है 
जहाँ -जहाँ पर भी  ग़म लिखा है 




आदिल रशीद 
Aadil Rasheed

mera chhota sa ghar

Tuesday, September 14, 2010

परिचय .आदिल रशीद

मेरा जन्म 25 दिसम्बर 1967 को सी-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ उत्तराखंड भारत में हुआ मेरा पैत्रक गांव तिलहर ज़िला शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश है .मेरे पिता स्वर्गीय अब्दुल रशीद सिचाई विभाग कालागढ़ उत्तराखंड में थे और उर्दु हिन्दी के आलोचक थे  क्यूंकि उनको आलोचना का ज्ञान दादा जी कारी सुलेमान से प्राप्त हुआ था जो अरबी उर्दू फारसी के विद्वान् थे घर में साहित्य का माहोल था पड़ोस में ही एक शायर भी रहते थे जिनका नाम था तमन्ना अमरोही था. उनके घर और हमारे घर अदब की खूब महफ़िलें मजलिसें सजती थीं मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई घर में ही उर्दू अरबी की शिक्षा मां सरवरी बेगम और बड़ी बहिन कौसर परवीन के द्वारा हुई. मैं ने अपनी बारह वर्ष की उम्र में पहली टूटी फूटी कुन्ड्ली कही जो काका हाथरसी की शैली में थी वो कुन्ड्ली थी
कालागढ़ में पी.टी.सी. का खूब हुआ प्रचार
पी.टी.सी. की आड में चला राजनीति हथियार
चला राजनीति हथियार सेन्टर खुल ना पाया
चारो ओर घूमता अब बेरोजगारी का साया
क्या चली है चाल दिल खुश हो गय मेरे आका
था शान्त कर दिया घोषित अशान्त इलाका
 इस कुन्ड्ली को  हमारे ही पड़ोस में रहने वाले पंडित जी श्री ह्रदय शंकर चतुर्वेदी जी ने अमर उजाला को भेज दिया और यह  प्रकाशित हुई. जिसमे मेरा उप नाम चाँद छपा था हमारे गुरूजी श्री नंदन जी जो खुद एक हिंदी के कवि थे ने पढ़ी और मेरी बड़ी सराहना की फिर मेरि कुन्ड्लियां खूब प्रकाशित होने लगीं गुरूजी श्री नंदन जी ने पिताजी को बताया पिता जी ने बुला कर कहा कि कविता करनी ही है तो पहले साहिर लुध्यान्वी को पढो और देहली से हिंदी में साहिर की एक पुस्तक डाक द्वारा मंगा कर दी और फिर मुझे शायरी के बारे में बताया पिताजी के पास उर्दू की बहुत सी पुस्तकें आती थी बाद में मैं ने महबूब हसन खान नय्यर तिलहरी को भी अपनी ग़ज़लें दिखाईं और भारत से निकलने वाले सभी अखबार और पत्रिकाओं में मेरी रचनाये प्रकाशित हुईं अपनी बीमारी और गिरती सेहत के कारण नय्यर साहेब मुझे अपने साथी ताहिर तिलहरी के पास छोड़ आये ,मगर खुदा ने उनको नय्यर साहेब से पहले ही अपने पास बुला लिया 1992 में देहली आ गया और शायरी को त्याग दिया, मगर शेर कहता रहा 2005  मे डाक्टर ताबिश मेहदी जो ताहिर भैया के करीबी दोस्त थे से मुलाक़ात हुई और उन्होंने फिर से शायरी करने को कहा फिर मुझे  शेह्बाज़ नदीम जियाई ने अवार्ड दिया उसके बाद से लगातार प्रकाशित होता रहा एक मुलाक़ात में साहित्य के मशहूर आलोचक एव मुंशी प्रेम चाँद पर पी एच डी प्रो कमर रईस जो मेरे ही वतन के रहने वाले थे और पिताजी के बचपन के दोस्त भी  उन्होने कहा की चाँद तुम्हारी शायरी में एक बात मुझे अच्छी लगी के तुम्हारे यहाँ मुहावरे बहुत आ रहे हैं जो हमारे भारत की एक अमूल्य धरोहर है और यही  बात है जो तुम्हे और शायरों से अलग करती है तो मेरा ध्यान इस ओर गया उन्होंने ये भी कहा के एक ऐसी ग़ज़ल मुमकिन है तुम कहो जिसमे सिर्फ मुहावरे ही मुहावरे हो और उसे मुहावरा ग़ज़ल कहा जाए ये उर्दू हिंदी साहित्य में एक नया काम होगा और तुम अगर कोशिश करो तो ये हो सकता है मैं ने उनकी बात पल्लू से बाँध ली और फिर मैं ऐसी दो ग़ज़लें लेकर उनके पास गया वो बहुत प्रसन्न हुए और मुझे आशीर्वाद दिया आज वो हमारे बीच नहीं हैं मगर उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रहेगा मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा के उनके मशवरे ने मुझे हिंदी उर्दू साहित्य की पहली मुहावरा ग़ज़ल कहने सौभाग्य प्रदान किया
मैं अपनी सभी मुहावरा ग़ज़लें स्वर्गीय प्रो.कमर रईस को समर्पित करता हूँ ....आदिल रशीद 

Wednesday, September 1, 2010

बाज़ कहाँ आता है दिल मनमानी से

        ग़ज़ल 
आदिल रशीद 
सारी दुनिया देख रही
हैरानी से
हम भी हुए हैं इक गुड़िया जापानी से
 

बाँट दिए बच्चों में वो सारे नुस्खे
माँ  ने जो भी कुछ सीखे थे नानी से 


ढूंढ़ के ला दो वो मेरे बचपन के दिन
जिन  मे 
कुछ सपने हैं धानी-धानी से

प्रीतम से तुम पहले पानी मत पीना
ये मैं ने सीखा है राजस्थानी से
 

मै ने कहा था प्यार के चक्कर में मत पड़
बाज़ कहाँ आता है दिल मनमानी  से
 

बिन तेरे मैं कितना उजड़ा -उजड़ा हूँ
दरिया की पहचान फ़क़त है पानी से
 

मुझ से बिछड़ के मर तो नहीं जाओगे तुम
कह तो दिया ये तुमने बड़ी आसानी से
 

पिछली रात को सपने मे कौन आया था
महक रहे हो आदिल रात की रानी से

आदिल रशीद 
Aadil Rasheed
New Delhi






रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है

मैंने अपनी  ये ग़ज़ल  15   अगस्त,1989  की रात को नगर पालिका तिलहर में एक काव्य गोष्टी में  इसका पाठ किया तो अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन एस डी एम साहेब ने इस के निम्न लिखित शेर
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
पर   50  रूपये पुरस्कार के रूप में दिए , जो मेरे जीवन में एक अमूल्य पुरस्कार और सम्मान है बाद में कुछ हिंदी कवियों ने मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम रखा और एक शाल भेट की तो कई आदरणीय बुज़ुर्ग उर्दू शायरों ने उस कार्यक्रम का बहिष्कार किया
              ग़ज़ल

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है

हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है

इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है

ये कह के हुमायूं को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है

अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है

आदिल रशीद
[नोट ;शुरू में मेरी रचनाएं चाँद तिलहरी एव चाँद मंसूरी के नाम से प्रकाशित हुई है]