Monday, August 30, 2010

मुहावरा ग़ज़ल /गिर के उठ कर जो चल नहीं सकता

                         ग़ज़ल
 
गिर के उठ कर जो चल नहीं सकता
वो कभी भी संभल नहीं सकता


तेरे सांचे में ढल नहीं सकता
इसलिए साथ चल नहीं सकता


आप रिश्ता रखें, रखें न रखें
मैं तो रिश्ता बदल नहीं सकता


वो भी भागेगा गन्दगी की तरफ
मैं भी फितरत बदल नहीं सकता


आप भावुक हैं आप पागल हैं
वो है पत्थर पिघल नहीं सकता


इस पे मंजिल मिले , मिले न मिले
अब मैं रस्ता बदल नहीं सकता


तुम ने चालाक कर दिया मुझको
अब कोई वार चल नहीं सकता

इस कहावत को अब बदल डालो
खोटा सिक्का तो चल नहीं सकता 


आदिल रशीद


2 comments:

इस्मत ज़ैदी said...

आप रिश्ता रखें, रखें न रखें
मैं तो रिश्ता बदल नहीं सकता

बहुत ख़ूब!
सच्चे रिश्तों की ख़ूबी को बयान करता हुआ शेर
एक अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें

सहज साहित्य said...

अदिल रशीद जी ने ग़ज़ल में मुहावरों का खूबसूरत प्रयोग किया है । जहाँ तक मेरी जानकारी है , एक ही ग़ज़ल में इतने मुहावरों का सार्थक प्रयोग देखने में नहीँ मिला ।