Monday, August 23, 2010

तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं



        ग़ज़ल


तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं
जो गोहर हैं वो ठोकर में पड़े हैं

उडाने ख़त्म कर के लौट आओ
अभी तक बाग़ में झूले पड़े हैं


मिरी मंजिल नदी के उस तरफ है
मुक़द्दर में मगर कच्चे घड़े हैं


ज़मीं रो रो के सब से पूछती है
ये बादल किस लिए रूठे पड़े हैं


किसी ने यूँ ही वादा कर लिया था
झुकाए सर अभी तक हम खड़े हैं


महल ख्वाबों का टूटा है कोई क्या
यहाँ कुछ कांच के टुकड़े पड़े हैं


उसे तो याद हैं सब अपने वादे
हमीं हैं जो उसे भूले पड़े हैं


ये साँसे ,नींद ,और ज़ालिम ज़माना
बिछड़ के तुम से किस किस से लड़े हैं


मैं पागल हूँ जो उनको टोकता हूँ
मिरे अहबाब  तो चिकने घड़े हैं  


तुम अपना हाल किस से कह रहे हो
तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं

गोहर = हीरे मोती
अहबाब= यार- दोस्त


आदिल रशीद

2 comments:

सहज साहित्य said...

मिरी मंजिल नदी के उस तरफ है
मुक़द्दर में मगर कच्चे घड़े हैं

ज़मीं रो रो के सब से पूछती है
ये बादल किस लिए रूठे पड़े हैं-
इन दोनों अशआर में बहुत गहरी संवेदना है ।'कच्चे घड़े'का आपने जो प्रयोग किया है, इसके पीछे की पूरी दुखान्त कथा उजागर हो जाती है जो आपके क़लाम को नई ऊँचाइयाँ देती है। जमीं का रो-रोकर पूछना नितान्त प्रासंगिक प्रयोग है , जो बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है । मुहावरों का प्रयोग बहुत बेहतरीन ढंग से किया गया है । रामेश्वर काम्बोज

Aadil Rasheed said...

आदरणीय कम्बोज जी
होसला अफ़ज़ाई क शुक्रिया
मैं पागल हूँ जो उन को टोकता हूँ
मिरे अहबाब तो चिकने घडे हैं
चिक्ना घडा भी एक इशारा है, जो शायद कविता ख़ास कर ग़ज़ल मे पहली बार प्रयोग हुआ है
अनुज
आदिल रशीद