Tuesday, August 24, 2010

मंजिले मक़सूद

स्वतंत्रता दिवस 1989 पर कही गई नज़्म मंजिले मक़सूद ये नज़्म 2 जुलाई 1989 को कही गई और प्रकाशित हुई इस नज़्म को 14 अगस्त 1992 को रेडियो पाकिस्तान के एक मशहूर प्रोग्राम स्टूडियो नं 12 में मुमताज़ मेल्सी ने भी पढ़ा .. आदिल रशीद



मंजिले मक़सूद


समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंजिल-ऐ-मक़सूद 1 पर क़दम रक्खे 1
जो ख्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी  का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकालते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूं बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत ,बहुत दूर मंजिल-ऐ-मक़सूद

मंजिले मक़सूद=जिस नन्ज़िल की इच्छा थी, हक बयानी= सच बोलना
 आदिल रशीद
Aadil Rasheed

4 comments:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

मोहतरम आदिल रशीद साहब, आदाब
आपके ब्लॉग पर अच्छा कलाम पढ़ने को मिला है...
ताजमहल, आज़ादी का तराना और दिगर कलाम ने मुतास्सिर किया.
मुबारकबाद कबूल फ़रमाएं.

aadilrasheed said...

shukriya apna tarruf bhi bheje

इस्मत ज़ैदी said...

इतनी उम्दा और सच्ची नज़्म के लिये तौसीफ़ी अल्फ़ाज़ नहीं हैं मेरे पास
बेशक ये सारे सवालात आज भी मौजूद है लेकिन

बसी है दिल में मेरे इक यक़ीन की ख़ुश्बू
कभी तो फूल खिलेंगे बबूल के बन में

मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं

aadilrasheed said...

इस्मत साहिबा क्या कहूँ
लफ्जे उम्मीद पे कायम है ये दुनिया अब तक
वक़्त बदलेगा ये उम्मीद लगाये रखिये
आपके ब्लॉग पर जनाब द्विज को पढ़ा और अब मैं आपको फोलो कर रहा हूँ आपको एतराज़ तो नहीं