Monday, August 30, 2010

मुहावरा ग़ज़ल /गिर के उठ कर जो चल नहीं सकता

                         ग़ज़ल
 
गिर के उठ कर जो चल नहीं सकता
वो कभी भी संभल नहीं सकता


तेरे सांचे में ढल नहीं सकता
इसलिए साथ चल नहीं सकता


आप रिश्ता रखें, रखें न रखें
मैं तो रिश्ता बदल नहीं सकता


वो भी भागेगा गन्दगी की तरफ
मैं भी फितरत बदल नहीं सकता


आप भावुक हैं आप पागल हैं
वो है पत्थर पिघल नहीं सकता


इस पे मंजिल मिले , मिले न मिले
अब मैं रस्ता बदल नहीं सकता


तुम ने चालाक कर दिया मुझको
अब कोई वार चल नहीं सकता

इस कहावत को अब बदल डालो
खोटा सिक्का तो चल नहीं सकता 


आदिल रशीद


Sunday, August 29, 2010

हिदुस्तानियों के नाम एक नज़्म पैग़ाम

    हिदुस्तानियों के नाम एक नज़्म पैग़ाम  
चलो पैग़ाम दे अहले वतन को

कि हम शादाब रक्खें इस चमन को

न हम रुसवा करें गंगों -जमन को

करें माहौल पैदा दोस्ती का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का


कसम खायें चलो अम्नो अमाँ की

बढ़ायें आबो-ताब इस गुलसिताँ की

हम ही तक़दीर हैं हिन्दोस्ताँ की

हुनर हमने दिया है सरवरी का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का



ज़रा सोचे कि अब गुजरात क्यूँ हो

कोई धोखा किसी के साथ क्यूँ हो

उजालों की कभी भी मात क्यूँ हो

तराशे जिस्म फिर से रौशनी का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का

न अक्षरधाम, दिल्ली, मालेगाँव

न दहशत गर्दी अब फैलाए पाँव

वतन में प्यार की हो ठंडी छाँव

न हो दुश्मन यहाँ कोई किसी का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का



हवाएँ सर्द हों कश्मीर की अब

न तलवारों की और शमशीर की अब

ज़रूरत है ज़़बाने -मीर की अब

तक़ाज़ा भी यही है शायरी का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का



मुहब्बत का जहाँ आबाद रक्खें

न कड़वाहट को हरगिज़ याद रक्खें

नये रिश्तों की हम बुनियाद रक्खें

बढ़ायें हाथ हम सब दोस्ती का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का


यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का

यही मक़सद बना लें ज़िन्दगी का


जय हिंद!


आदिल रशीद
Aadil Rasheed




Friday, August 27, 2010

एक मुशाय्ररे / कवि सम्मेलन में संचालन का एक मन्ज़र



एक मुशाय्ररे / कवि सम्मेलन में संचालन का एक मन्ज़र

Thursday, August 26, 2010

kuch puraani yaaden .....aadil rasheed

bachpan ki tasveer zakir akela ,ramesh bebasd,saleem tanha aur main aadil rasheed chaand

zakir akela aur main aadil rasheed chaand


zakir akela aur main aadil rasheed chaand



zakir ansaari main aadil rasheed chaand 1980


dainik jagran ki katran  mere samman me kavi goshti

gulzaar dehlvi,salmaan khursheed,rajeev shukla,aijaz ansari

gulzaar dehlvi,salmaan khursheed,rajeev shukla,aijaz ansari

Wednesday, August 25, 2010

उसे तो कोई अकरब काटता है

               ग़ज़ल
उसे तो कोई अकरब काटता है

कुल्हाड़ा पेड़ को कब काटता है

जुदा जो गोश्त को नाखुन से कर  दे
वो मसलक हो के मशरब काटता है

बहकने का नहीं इमकान कोई
अकीदा सारे करतब काटता है

कही जाती नहीं हैं जो जुबां से
उन्ही बातों का मतलब काटता है

वो काटेगा नहीं है खौफ इसका
सितम ये है के बेढब काटता है

तू होता साथ तो कुछ बात होती
अकेला हूँ तो मनसब काटता है

जहाँ तरजीह देते हैं वफ़ा को
जमाने को वो मकतब काटता है

उसे तुम खून भी अपना पिला दो
मिले मौका तो अकरब काटता है

ये माना सांप है ज़हरीला बेहद
मगर वो जब दबे तब काटता है

अलिफ़,बे.ते.सिखाई जिस को आदिल
मेरी बातों को वो अब काटता है

अकरब=निकटतम व्यक्ति, 
गोश्त= मांस,
मसलक-मशरब=धर्म मज़हब
इमकान= उम्मीद,
अकीदा= यकीन विश्वास 
करतब =जादू टोना
मनसब= ओहदा पद ,
तरजीह=प्राथमिकता,
मकतब=स्कूल

आदिल रशीद
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For urdu
http://www.aadil-rasheed.blogspot.com/

Tuesday, August 24, 2010

मंजिले मक़सूद

स्वतंत्रता दिवस 1989 पर कही गई नज़्म मंजिले मक़सूद ये नज़्म 2 जुलाई 1989 को कही गई और प्रकाशित हुई इस नज़्म को 14 अगस्त 1992 को रेडियो पाकिस्तान के एक मशहूर प्रोग्राम स्टूडियो नं 12 में मुमताज़ मेल्सी ने भी पढ़ा .. आदिल रशीद



मंजिले मक़सूद


समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंजिल-ऐ-मक़सूद 1 पर क़दम रक्खे 1
जो ख्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी  का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकालते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूं बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत ,बहुत दूर मंजिल-ऐ-मक़सूद

मंजिले मक़सूद=जिस नन्ज़िल की इच्छा थी, हक बयानी= सच बोलना
 आदिल रशीद
Aadil Rasheed

आज़ादी पर एक नज़्म -पैग़ाम

आज़ादी पर एक नज़्म -पैग़ाम ये नज़्म भारत के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों में  प्रकाशित  हुई /आदिल रशीद

Monday, August 23, 2010

तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं



        ग़ज़ल


तुम्हारे ताज में पत्थर जड़े हैं
जो गोहर हैं वो ठोकर में पड़े हैं

उडाने ख़त्म कर के लौट आओ
अभी तक बाग़ में झूले पड़े हैं


मिरी मंजिल नदी के उस तरफ है
मुक़द्दर में मगर कच्चे घड़े हैं


ज़मीं रो रो के सब से पूछती है
ये बादल किस लिए रूठे पड़े हैं


किसी ने यूँ ही वादा कर लिया था
झुकाए सर अभी तक हम खड़े हैं


महल ख्वाबों का टूटा है कोई क्या
यहाँ कुछ कांच के टुकड़े पड़े हैं


उसे तो याद हैं सब अपने वादे
हमीं हैं जो उसे भूले पड़े हैं


ये साँसे ,नींद ,और ज़ालिम ज़माना
बिछड़ के तुम से किस किस से लड़े हैं


मैं पागल हूँ जो उनको टोकता हूँ
मिरे अहबाब  तो चिकने घड़े हैं  


तुम अपना हाल किस से कह रहे हो
तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं

गोहर = हीरे मोती
अहबाब= यार- दोस्त


आदिल रशीद

आज का बीते कल से क्या रिश्ता

               ग़ज़ल

आज का बीते कल से क्या रिश्ता
झोपडी का महल से क्या रिश्ता


हाथ कटवा लिए महाजन से
अब किसानो का हल से क्या रिश्ता


सब ये कहते हैं भूल जाओ उसे
मशवरों का अमल से क्या रिश्ता


किस की खातिर गंवा दिया किसको
अब मिरा गंगा जल से क्या रिश्ता


जिस में सदियों की शादमानी हो
अब किसी ऐसे पल से क्या रिश्ता


जो गुज़रती है बस वो कहता हूँ
वरना मेरा ग़ज़ल से क्या रिश्ता


जिंदा रहता है सिर्फ पानी में
 रेत का है कँवल से क्या रिश्ता


मैं पुजारी हूँ अम्न का आदिल
मेरा जंग ओ जदल से क्या रिश्ता 

जंग ओ जदल =लड़ाई झगडा


आदिल रशीद

न दौलत जिंदा रहती है न चेहरा जिंदा रहता है

                        ग़ज़ल
न दौलत जिंदा रहती है न चेहरा जिंदा रहता है

बस इक किरदार ही है जो हमेशा जिंदा रहता है

कभी लाठी के मारे से मियां पानी नहीं फटता
लहू में भाई से भाई का रिश्ता जिंदा रहता है

ग़रीबी और अमीरी बाद में जिंदा नहीं रहती
मगर जो कह दिया एक एक जुमला जिंदा रहता है

न हो तुझ को यकीं तारीखएदुनिया पढ़ अरे ज़ालिम
कोई भी दौर हो सच का उजाला जिंदा रहता है

अभी आदिल ज़रा सी तुम तरक्की और होने दो
पता चल जाएगा दुनिया में क्या क्या जिंदा रहता है

जुमला=वाक्य तारीखएदुनिया=इतिहास दुनिया का


आदिल रशीद

ग़ज़ल/वफ़ा ,इखलास , ममता ,भाई चारा छोड़ देता है /Aadil Rasheed

                           ग़ज़ल

वफ़ा ,इखलास , ममता ,भाई चारा छोड़ देता है
तरक्की के लिए इन्सान क्या क्या छोड़ देता ही



तडपने के लिए दिन भर को प्यासा छोड़ देता है
अजां होते ही वो किस्सा अधुरा छोड़ देता है

किसी को ये जुनू बुनियाद थोड़ी सी बढ़ा लूँ मैं
कोई भाई की खातिर अपना हिस्सा छोड़ देता है


सफर में ज़िन्दगी के लोग मिलते हैं बिछड़ते हैं
किसी के वास्ते क्या कोई जीना छोड़ देता है


हमारे बहते खूं में आज भी शामिल है वो जज्बा
अना की पास्वानी में जो दरिया छोड़ देता हैं

सफर में ज़िन्दगी के मुन्तजिर हूँ ऐसी मंजिल का
जहाँ पर आदमी ये तेरा - मेरा छोड़ देता है


अभी तो सच ही छोड़ा है जनाब- ऐ -शेख ने आदिल
अभी तुम देखते जाओ वो क्या क्या छोड़ देता है
इखलास=ख़ुलूस,  अजां =अज़ान,  अना =स्वाभिमान,
पास्वानी= सुरक्षा , मुन्तजिर=इन्तिज़ार

Aadil Rasheed New Delhi
(INDIA)
9810004373,9811444626

मुहावरा ग़ज़ल = पालते रहना /आदिल रशीद/aadil rasheed

            ग़ज़ल

ख्वाब आँखों में पालते रहना
जाल दरिया में डालते रहना


जिंदगी पर किताब लिखनी है
मुझको हैरत में डालते रहना


और कई इन्किशाफ़ होने हैं     
तुम समंदर खंगालते रहना


ख्वाब रख देगा तेरी आँखों में
ज़िन्दगी भर संभालते रहना


 तेरा दीदार मेरी मंशा  है      
उम्र भर मुझको टालते रहना


जिंदगी आँख फेर सकती है
आँख में आँख डालते रहना


तेरे एहसान भूल सकता हूँ
आग में तेल डालते रहना


मैं भी तुम पर यकीन कर लूँगा
तुम भी पानी उबालते रहना


इक तरीक़ा है कामयाबी का
खुद में कमियां निकलते रहना

इन्किशाफ़ =खुलासा
मंशा =इच्छा मर्ज़ी


 आदिल रशीद
9810004373 9811444626

मुहावरा ग़ज़ल : आज थोड़ी है/aadil rasheed

               
               ग़ज़ल

कल जो राइज था आज थोड़ी है
अब वफ़ा का रिवाज थोड़ी है


जिंदगी बस तुझी को रोता रहूँ
और कोई काम काज थोड़ी है


दिल उसे अब भी बावफा समझे
वहम का कुछ इलाज थोड़ी है


आप की हाँ में हाँ मिला दूंगा
आप के घर का राज थोड़ी है


है ज़रुरत तुझे दुआओं की
मय ग़मों का इलाज थोड़ी है

वो ही क़ादिर है वो बचा लेगा
अपने हाथों में लाज थोड़ी है


वो ही हाजित रवा है राज़िक़ है
तेरी मुट्ठी में नाज थोड़ी है

उस की यादों से पार पद जाए
हर मरज़ का इलाज थोड़ी है


दाद है ये  हमारी ग़ज़लों की
एक मुट्ठी अनाज थोड़ी है


उम्र भी देखो हरकतें देखो
उसको कुछ लोक लाज थोड़ी है


प्यार को प्यार ही समझ लेगा
इतना अच्छा समाज थोड़ी है


मैं शिकायत किसी से कर बैठूं
मेरा ऐसा मिज़ाज थोड़ी है


शायरी छोड़ देंगे इक दिन हम
ये मरज़ ला इलाज थोड़ी है

राइज ( चलन ) (मय =मदिरा,शराब)
(क़ादिर =सर्वशक्तिमान इश्वर )
(हाजित रवा=ज़रुरत पूरी करने वाला,
(राज़िक़=अन्नदाता )

ग़ज़ल /पहले सच्चे का वहिष्कार किया जाता है /आदिल रशीद

                      ग़ज़ल

पहले सच्चे का वहिष्कार किया जाता है

फिर उसे हार के स्वीकार किया जाता है

ज़हर में डूबे हुए हो तो इधर मत आना
ये वो बस्ती है जहाँ प्यार किया जाता है

क्या ज़माना है के झूटों का तो सम्मान करे
और सच्चों का तिरस्कार किया जाता है

तू फ़रिश्ता है जो एहसान तुझे याद रहे
वर्ना इस बात से इनकार किया जाता है

जिस किसी शख्स के ह्रदय में कपट होता है
दूर से उसको नमस्कार किया जाता है


आदिल रशीद
नई दिल्ली
 भारत